सोमवार, 18 जुलाई 2011

पिछड़ेपन के बीच ग्रामीण पत्रकारिता

कुमार सुधीर
सुप्रतिष्ठित पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी नें सबका ध्यान आकर्षित करते हुए कहा कि राष्ट्र महलों में नहीं रहता, प्रकृति राष्ट्र के निवास स्थल में वे अगणित झोपड़े हैं जो गांवों और पुरवों में फैले हुए आकाश के देदीप्यमान सूर्य और शीतल चंद्र और तारागण से प्रकृति का संदेश लेते हैं। इसीलिए राष्ट्र का मंगल और उसकी जड़ उस समय तक मजबूत नहीं हो सकती, जब तक कि अगणित लहलहाते पौधों की जड़ों में जीवन का जल नहीं सींचा जाता। अपना देश गांवों का देश है और जहां 70 प्रतिशत जनता गांवों में रहती है। और आज भी गांवों में अभूतपूर्व पिछड़ापन हैं, जिसके मूल में संचार की रिक्तता है। ऐसे में ग्रामीण पत्रकारिता की हैसियत और भी बढ़ जाती हैं, क्योंकि सुदूर गांवों में नई चेतना और वैज्ञानिक विकास के स्वर को ग्रामीण पत्रकारिता द्वारा ही पहुंचाया जा सकता है।
दरअसल, ग्रामीण पत्रकारिता आज भी महत्वपूर्ण जगह हासिल नहीं कर पा रही है। वजह भी खास है कि समाचार पत्रों, मीडिया की राजनीतिक हलचल, अपराध, खेलकूद, पेज थ्री की पार्टियां और सेंसेक्स से जुड़ी तेज रफ्तार खबरों के बीच ग्रामीण खबरों का दबा दिया जाना। सही मायने में देखा जाए, तो लगता है कि मौजूं समय में भारतीय मीडिया को इसी मायने में परिभाषित किया जाने लगा है। टीवी के कैमरे और कलम की धार से इन दिनों जो चीजें सामने आ रही हैं, वह आम आदमी के दायरे से शायद बाहर की ही चीजें है और इस सारे 'पैकेज' में ग्रामीण पत्रकारिता हाशिए से बाहर ही दिखाई देती है। एक ऐसा देश, जिसमें दुनिया की एक तिहाई ऐसी जनसंख्या मौजूद है, जिसे पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं मिल पाता, जिसकी आबादी का 5वां हिस्सा विकास परियोजनाओं की वजह से बेघर है, जिसमें से ज्यादातर लोग टीवी या अन्य रोगो से पीडित हैं। वहां आज भी ग्रामीण इलाके और विकास कार्यों के कवरेज के लिए अलग से पत्रकारों की नियुक्ति नहीं की गई। और जो भी सज्जन बंधु पत्रकार हैं वे या तो गांव के मुखिया हैं या दुकानदार हैं या फिर गांव के झोलाछाप डॉक्टर... उन्हें या तो खबरों से संबंधित जानकारी बहुत कम है या बिल्कुल नहीं हैं।
ग्रामीण विकास के इस पिछड़ेपन के लिए पत्रकारिता नहीं हो पाने के कई कारण हो सकते हैं। एक कारण तो यह भी हो सकता है कि समाचार पत्र या मीडिया मालिकों का मानना है कि यदि वे गरीबी या पिछड़ेपन से जुड़े हुए मुद्दों को उठाते हैं तो इन मुद्दों की चर्चा से विज्ञापन नहीं बटोर सकते। जहां आज के समय में सौंदर्य प्रतियोगिताओं से जुड़ी खबरों को अहमियत दी जाती हैं और जिसके लिए विज्ञापनदाता बड़ी से बड़ी रकम अदा करने के लिए तैयार रहते हैं, लेकिन विकास और ग्रामीण विकास के मुद्दे पर होने वाले कार्यक्रमों के मायने में ऐसा नहीं हो सकता। उदाहरण के तौर पर हम बच्चन परिवार की शादी कीह ओर जाए, जहां ऐश्वर्या राय और अभिषेक बच्चन  की शादी पर करोड़ों रुपये के विज्ञापन जुटाए गए थे। मीडिया ने महीनों तक कैमरा लिए उन पर हरपल निगाहें जमाये रखे थीं। और आज जब ऐश्वर्या राय बच्चन गर्भवती हैं। उनकी खबर को मीडिया ने इस तरह पकड़ा कि छोड़ने का नाम नहीं लिया। प्रतिष्ठित समाचार चैनलों के लिए यह चौबीसों घंटों की खबर बन गई। खूब 'रायता' फैला-फैलाकर इस खबर को पकाया। खूब विज्ञापन बटोरा चैनलों ने। इसके बाद अमिताभ बच्चन चालीस साल बाद अजमेर शरीफ गए, मन्नत मांगने के लिए। उन्होंने कहा तो यह कि जब उन्होंने फिल्मी कॅरियर की शुरुआत की थी तब वहां पर धागा बांधा था और मन्नत मांगी थी। आज वह बुलंदियों पर हैं तो जाकर धागा खोलने गए। इस खबर को मीडिया ने इस तरह तूल दिया कि सट्टेबाजों के अरमान जाग गए। लगा डाला सट्टा कि पोता होगा या पोती। इस प्रकार की खबरों के लिए समाचार पत्र भी पीछे नही रहे। खबर को अपने समाचार पत्रों में तीन या चार कॉलमों की खबर बनाकर बड़े-बड़े फोटो छापे। ऐश्वर्या राय के गर्भवती होने की खबर समाचार चैनलों पर चल रही इस खबर को देखकर ऐसा लगा रहा था कि मानो हिंदुस्तान में कोई गरीब नहीं रहा। 
  वर्तमान मीडिया में ग्लैमर, फिल्म और फैशन के कवरेज के लिए दर्जन भर पत्रकार रखे जाते हैं, खेल के लिए दर्जनों पत्रकारों की भीड़ देखी जा सकती हैं, जबकि विकास के नाम पर शायद ही कोई बीट अलग से दिखाई देती हो। समाचार पत्रों में भी ग्लैमर, खेल या फैशन से संबंधित अलग से पेज और स्थान होता है। जबकि ग्रामीण विकास और उनसे जुड़ी खबरों के लिए कोई भी विशेष जगह नहीं होती। ग्लैमर या खेल कवर करने वाले पत्रकार विशिष्ट पत्रकार माने जाते हैं और वे अच्छी तनख्वाह के हकदार बनते है। भारत में अभिताभ बच्चन, राहुल गांधी, मायावती और अमरसिंह का जन्मदिन दिखाने के लिए लाइव कवरेज का इंतजाम हो सकता है, पैसा पानी की तरह बहाया जा सकता है, लेकिन आर्थिक तंगी से आत्महत्या कर रहे किसानों पर डेढ़ या दो मिनट का समय लगाना मुश्किल हो जाता है। अगर इस माहौल मे कोई ग्रामीण विकास की खबर करना चाहता है तो उसे खास अहमियत नहीं दी जाती। विकास पर आधारित स्टोरी भले ही कितनी मेहनत से तैयार की जाए, एक मामूली सी राजनीतिक या अपराधिक स्टोरी को दिखाने के लिए सर्वप्रथम विकास पर ही आधारित स्टोरी का ही गला घोंटा जाता है। इसलिए उस पत्रकार को कोई खास दर्जा नहीं मिल पाता है। मीडिया दफ्तर में भी वही पत्रकार हावी हो पाते हैं जो विशेष बीट पर होते हैं और जो हंगामे के साथ स्टोरी को ऊंचे दामों में बेच लेते हैं। इसी तरह देखा जाए तो यदि गांव या बहुत छोटे कस्बे में ग्रामीण विकास या अन्य मुद्दों पर कोई विशेष राजनीतिक कार्यक्रम या कार्यशाला आयोजित होती है तो उस समय वहां भी ग्रामीण पत्रकार को कोई भी अहमियत नहीं दी जाती है। उसकी रिपोर्टिंग के लिए शहरी पत्रकार ही कवरेज करने के लिए भेजा जाता है।
मतलव साफ है कि एक ऐसा देश में जहां दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब मौजूद हैं, वहां खबर अमीरों की बनती है। वैसे भी यह माना जाता है कि देश की 70 प्रतिशत आबादी न्यूज नहीं बन सकती। इसके चलते भी ग्रामीण पत्रकारिता को हाशिए से बाहर रखना ही ज्यादा सही माना जाता है। औद्योगिकीकरण के इस दौर में आदर्श गांवों में भूमि सुधार न होकर औद्योगीकरण के रूप में हो गया है। नतीजा भी तो सामने है। सामाजिक उद्देश्यों का बहाना बनाकर किसानों की जमीन का अधिग्रहण कर कंपनियों को फायदा पहुंचाने की जुगत रची जाती है। वास्तव में अब गांव का सपना आदर्श गांव बनकर नहीं रह गया है।             
  एक दृष्टिकोण से अगर देखा जाये तो दरअसल, भारत में मीडिया का सही ढ़ंग से सकारात्मक प्रयोग नहीं हो पा रहा है। मीडिया लोगों को सूचना और मनोरंजन परोसते हुए आम तौर पर विकास के पिछड़ेपन को भूल ही जाता है। मीडिया की यह भूल विकास को कहां तक ले जाएगी, यह कहना संभव नहीं है। इस बारे में समाचार प्रबंधन की दृष्टि भी साफ व सुनिश्चित नही है, मेरा मानना है कि जब उपभोक्ता सामग्री वाले लोग गांवों में घुसपैठ बना रहे है तो हमारा ये कहना बिल्कुल समझ से परे है कि विकास की योजनाओं का संचार ग्रामीण आंचलों में नहीं हो सकता। श्रीलंका जैसा छोटा देश भी सामुदायिक रेडियो के जरिए पूरे देश में विकास को प्रचारित कर सरपट दौड़ रहा है। भारत में आज भी इस स्तर पर ज्यादा कुछ हासिल नही किया जा सका है। आज भी रेडियो की पहुंच टीवी से कहीं ज्यादा है, लेकिन रेडियो की इस संभावना को भी टीवी की उछलकूद के समान तेज बनाने की कोशिश होने लगी है। अत: मेरा अब यही मानना है कि हमें सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए चश्रु खोलने होगे, निरा ग्रामीण पत्रकारों पर आश्रित न होकर अपने में संवेदशीलता लानी होगी, तभी गांवों और देश का सही व समुचित विकास संभव होगा।
कुमार सुधीर

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