सहयोगी से प्रतिद्वंद्वी बने मुलायम और मायावती
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलने के साथ ही राजनीति का एक बड़ा चक्र पूरा हो गया। आज से लगभग दो दशक पहले आपस में गठबंधन करके प्रदेश की राजनीति में अपने पैर जमाने वाली सपा और बसपा अब राज्य में एक दूसरे का विकल्प बनकर स्थापित हो चुके हैं। प्रदेश की राजनीति में सपा और बसपा ने अपने पैर जमाने का सिलसिला वर्ष 1993 में गठबंधन करके शुरू किया था और तब 425 सदस्यीय विधानसभा में इस गठबंधन को 176 (सपा 109 और बसपा 67) सीट मिली थीं। कांग्रेस तथा जनता दल के समर्थन से मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा और बसपा ने मिलकर सरकार बनाई थी।
महज डेढ़ साल के भीतर हालांकि 1995 में दो जून को स्टेट गेस्ट हाउस में बसपा नेता मायावती पर कथित सपा समर्थको के हमले जैसी कुख्यात घटना के बाद दोनों दलो का गठबंधन पूरी कड़वाहट के साथ टूट गया। इसके बाद भाजपा तथा अन्य दलों के समर्थन से मायावती पहली बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। बहरहाल उनकी पहली सरकार भाजपा द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद महज चार महीने में ही गिर गई थी। वर्ष 1996 में राष्ट्रपति शासन के दौरान विधानसभा का चुनाव हुआ और बसपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा। बसपा 425 में से 299 पर लड़ी और 69 सीटो पर जीत हासिल की, जबकि कांग्रेस कुल 126 सीटो पर लड़ी और 33 पर जीत हासिल की।
भाजपा प्रदेश में 174 सीटों के साथ पहले नंबर पर थी, मगर वह तब सरकार गठन के लिए 213 की संख्या पाने के लिए जरुरी समर्थन का भरोसा नहीं दिला पाई और तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी की संस्तुति पर केंद्र में सत्तारुढ़ एचडी देवगौड़ा की संयुक्त मोर्चे की सरकार ने प्रदेश में राष्ट्रपति शासन को आगे बढ़ा दिया। मुलायम तब केंद्र में रक्षा मंत्री थे। प्रदेश विधानसभा सुसुप्तावस्था में डाल दी गई मगर इसी दौर में इतिहास ने एक और करवट ली। कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाली बसपा ने उसका हाथ छोड़ दिया और भाजपा से हाथ मिला लिया।
गठबंधन की राजनीति में एक नया पन्ना जुड़ा और दोनो दलों ने छह-छह महीने की पाली बांध कर गठबंधन सरकार बनाने का फैसला किया। मायावती दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी, भाजपा के केसरीनाथ त्रिपाठी विधानसभा अध्यक्ष बने। मगर छह महीने बाद जब सत्ता बदल का समय आया तो बसपा ने त्रिपाठी की जगह पर अपना कब्जा मांगा। काफी आगा-पीछा के बाद मायावती ने कल्याण सिंह के लिए मुख्यमंत्री का पद तो छोड़ दिया, मगर बमुश्किल दो महीने बाद ही समर्थन वापस ले लिया। कांग्रेस और बसपा में तोड़फोड़ करके सत्ता में रही भाजपा नीत गठबंधन सरकार में कल्याण सिंह के बाद रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह भी मुख्यमंत्री बने। मगर वर्ष 2002 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा और उत्तराखंड के गठन के बाद 403 सदस्यीय विधानसभा में उसे 20 प्रतिशत मतो के साथ 88 सीट पर संतोष करना पड़ा। तब 143 सीटो के साथ सपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, 98 सीटो के साथ बसपा नंबर दो पर थी, जबकि 88 सीटो के साथ भाजपा तीसरे स्थान पर रही। कांग्रेस को 8 प्रतिशत मतो के साथ कुल 25 सीटें ही मिली थीं।
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव के बाद फिर एक बार राष्ट्रपति शासन लागू हुआ, मगर दो महीने के भीतर भाजपा और बसपा ने एक बार फिर हाथ मिला लिया। मायावती तीसरी बार मुख्यमंत्री बनी पर डेढ़ साल बाद भाजपा सरकार से अलग हो गई और मायावती सरकार के गिरने के बाद वर्ष 2003 में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा एवं तब इसके साथ आ गये छोटे दलों की सरकार सत्ता में आई। उस समय केंद्र में अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार चल रही थी और यादव सरकार के गठन में भी भाजपा की परोक्ष भूमिका का स्पष्ट भान हुआ।
वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव तक पहुंचते पहुंचते राजनीति का चक्र पूरा हो चुका था। 1993 में गठबंधन करके प्रदेश की राजनीति में पैर जमाने वाली बसपा और सपा प्रदेश के मुख्य दलों के रूप में उभर चुके थे। राज्य में 16 साल बाद किसी पार्टी (बसपा) को पूर्ण बहुमत मिला और लगभग 26 प्रतिशत वोट और 97 सीट के साथ सपा दूसरे स्थान पर रही, भाजपा 17 प्रतिशत वोट और 51 सीट के साथ तीसरे और कांग्रेस लगभग आठ प्रतिशत मतो के साथ 22 सीट ही जीत सकी। बहरहाल प्रदेश की 16वीं विधानसभा के लिए हुए चुनाव में इतिहास में सर्वाधिक लगभग 60 प्रतिशत मतदान के बीच तमाम कयासबाजियों को झुठलाते हुए बसपा की धुर विरोधी बनकर उभरी मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने वर्ष 2007 में मिली पराजय का मुंहतोड़ जवाब दिया और पूर्ण बहुमत हासिल करके सत्ता में शानदार वापसी का जनादेश अर्जित कर लिया।
इस तरह अब से लगभग दो दशक पहले 1993 में गठबंधन में राजनीति शुरू करने वाली मुलायम और मायावती न सिर्फ एक दूसरे का विकल्प बन गए, बल्कि दोनो ने राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भाजपा को हाशिए पर धकेल दिया।
महज डेढ़ साल के भीतर हालांकि 1995 में दो जून को स्टेट गेस्ट हाउस में बसपा नेता मायावती पर कथित सपा समर्थको के हमले जैसी कुख्यात घटना के बाद दोनों दलो का गठबंधन पूरी कड़वाहट के साथ टूट गया। इसके बाद भाजपा तथा अन्य दलों के समर्थन से मायावती पहली बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। बहरहाल उनकी पहली सरकार भाजपा द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद महज चार महीने में ही गिर गई थी। वर्ष 1996 में राष्ट्रपति शासन के दौरान विधानसभा का चुनाव हुआ और बसपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा। बसपा 425 में से 299 पर लड़ी और 69 सीटो पर जीत हासिल की, जबकि कांग्रेस कुल 126 सीटो पर लड़ी और 33 पर जीत हासिल की।
भाजपा प्रदेश में 174 सीटों के साथ पहले नंबर पर थी, मगर वह तब सरकार गठन के लिए 213 की संख्या पाने के लिए जरुरी समर्थन का भरोसा नहीं दिला पाई और तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी की संस्तुति पर केंद्र में सत्तारुढ़ एचडी देवगौड़ा की संयुक्त मोर्चे की सरकार ने प्रदेश में राष्ट्रपति शासन को आगे बढ़ा दिया। मुलायम तब केंद्र में रक्षा मंत्री थे। प्रदेश विधानसभा सुसुप्तावस्था में डाल दी गई मगर इसी दौर में इतिहास ने एक और करवट ली। कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाली बसपा ने उसका हाथ छोड़ दिया और भाजपा से हाथ मिला लिया।
गठबंधन की राजनीति में एक नया पन्ना जुड़ा और दोनो दलों ने छह-छह महीने की पाली बांध कर गठबंधन सरकार बनाने का फैसला किया। मायावती दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी, भाजपा के केसरीनाथ त्रिपाठी विधानसभा अध्यक्ष बने। मगर छह महीने बाद जब सत्ता बदल का समय आया तो बसपा ने त्रिपाठी की जगह पर अपना कब्जा मांगा। काफी आगा-पीछा के बाद मायावती ने कल्याण सिंह के लिए मुख्यमंत्री का पद तो छोड़ दिया, मगर बमुश्किल दो महीने बाद ही समर्थन वापस ले लिया। कांग्रेस और बसपा में तोड़फोड़ करके सत्ता में रही भाजपा नीत गठबंधन सरकार में कल्याण सिंह के बाद रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह भी मुख्यमंत्री बने। मगर वर्ष 2002 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा और उत्तराखंड के गठन के बाद 403 सदस्यीय विधानसभा में उसे 20 प्रतिशत मतो के साथ 88 सीट पर संतोष करना पड़ा। तब 143 सीटो के साथ सपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, 98 सीटो के साथ बसपा नंबर दो पर थी, जबकि 88 सीटो के साथ भाजपा तीसरे स्थान पर रही। कांग्रेस को 8 प्रतिशत मतो के साथ कुल 25 सीटें ही मिली थीं।
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव के बाद फिर एक बार राष्ट्रपति शासन लागू हुआ, मगर दो महीने के भीतर भाजपा और बसपा ने एक बार फिर हाथ मिला लिया। मायावती तीसरी बार मुख्यमंत्री बनी पर डेढ़ साल बाद भाजपा सरकार से अलग हो गई और मायावती सरकार के गिरने के बाद वर्ष 2003 में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा एवं तब इसके साथ आ गये छोटे दलों की सरकार सत्ता में आई। उस समय केंद्र में अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार चल रही थी और यादव सरकार के गठन में भी भाजपा की परोक्ष भूमिका का स्पष्ट भान हुआ।
वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव तक पहुंचते पहुंचते राजनीति का चक्र पूरा हो चुका था। 1993 में गठबंधन करके प्रदेश की राजनीति में पैर जमाने वाली बसपा और सपा प्रदेश के मुख्य दलों के रूप में उभर चुके थे। राज्य में 16 साल बाद किसी पार्टी (बसपा) को पूर्ण बहुमत मिला और लगभग 26 प्रतिशत वोट और 97 सीट के साथ सपा दूसरे स्थान पर रही, भाजपा 17 प्रतिशत वोट और 51 सीट के साथ तीसरे और कांग्रेस लगभग आठ प्रतिशत मतो के साथ 22 सीट ही जीत सकी। बहरहाल प्रदेश की 16वीं विधानसभा के लिए हुए चुनाव में इतिहास में सर्वाधिक लगभग 60 प्रतिशत मतदान के बीच तमाम कयासबाजियों को झुठलाते हुए बसपा की धुर विरोधी बनकर उभरी मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने वर्ष 2007 में मिली पराजय का मुंहतोड़ जवाब दिया और पूर्ण बहुमत हासिल करके सत्ता में शानदार वापसी का जनादेश अर्जित कर लिया।
इस तरह अब से लगभग दो दशक पहले 1993 में गठबंधन में राजनीति शुरू करने वाली मुलायम और मायावती न सिर्फ एक दूसरे का विकल्प बन गए, बल्कि दोनो ने राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भाजपा को हाशिए पर धकेल दिया।
लेबल: उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव समाजवादी पार्टी, ग्रामीण, मौसम, संसद, सुधीर
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]
<< मुख्यपृष्ठ