मत बनकर रहो 'तीन बंदर'
आज भारत में भ्रष्टाचार चरम पर है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जिसमें यह घर नहीं कर गया हो। अब यहां एक बात गौर करने लायक है कि किसी भी समाज या देश की रीढ़ उसकी आथिक सुदृढ़ता होती है। और ऐसे में पूरी संभावना रहती है कि आदमी अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करने के लिए कोई (!) भी तौरतरीका अपनाने से गुरेज नहीं करना चाहेगा। दूसरी बात यह कि हमेशा से ही भ्रष्टचार का संबंध राजनीति, प्रशासन, सत्ता और साथ ही व्यापार से रहा है। समाज के परिपक्व होने के साथ-साथ इनका रिश्ता कमजोर नहीं, वरन और भी अधिक प्रगाढ़ होता गया है।
शुरूआत की बात पर फिर लौटते हैं। भ्रष्टाचार आज इस कदर पसर चुका है कि यह जीवन में उतना ही जरूरी महसूस किया जाना लगा है कि जितना कि आक्सीजन। नजर पसारें तो अस्पताल, थाना, बैंक, स्कूल, कालेज, नौकरी, सरकारी दफ्तर, राशन की दुकान, परिवहन आखिर कहां नहीं है भ्रष्टाचार। अस्पताल में करीबी को भर्ती कराना हो तो रिश्वत, ड्राइविंग लाइसेंस बनवानी हो तो रिश्वत, बर्थ सर्टिफिकेट बनावाना हो तो रिश्वत, मृत्यु प्रमाणपत्र के लिए रिश्वत, बिजली-पानी कनेक्शन कराना है तो रिश्वत, घर बनावाने के लिए प्लान पास करवाना हो तो रिश्वत दिए बिना फाइल आगे बढ़ेगी ही नहीं। इन सबसे हर आदमी का रोजाना वास्ता पड़ता है।
भ्रष्टाचार का यह रूप महज एक निचले स्तर का है। इस स्तर को बगैर दृढ़ इच्छाशक्ति के बूते रोक पाना कतई संभव नहीं है। लेकिन जो ‘भ्रष्ट सांप’ सिस्टम (तंत्र) में कुंडली मारे बैठे हैं, उनका सफाया करना इतना आसान नहीं जितना कि हम सोचते हैं। ये ‘सांप’ सिस्टम (प्रशासनिक और राजनीतिक) में सुनियोजित तरीके से रेंगते हैं। इसकी भनक आम आदमी को लगती तो नहीं है, बल्कि असर जरूर होता है। अब टूजी स्पेक्ट्रम मामले हो ही ले लीजिए। 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपये का घोटाला। ऐसे सिस्टेमिक भ्रष्ट तंत्र को गला पाना तभी संभव है, जब दुनिया के सबसे बड़े इस लोकतंत्र की पिलपिली प्रक्रिया को दुरुस्त किया जाए। पूरे परिदृश्य को देखते हुए यह कहना कतई गुनाह नहीं होगा कि गांव में राशन दुकान से लेकर लोकसभा तक एक नया भ्रष्ट समाज (!) पैदा हो गया है।
और वैसे भी भारत अतुल्य देश है। यहां के लोग गांधीजी के तीन बंदरों में विश्वास रखते हैं। हालत यह है कि सभ्य लोग (!) उन तीन बंदरों की तरह बनकर रह गए हैं। यह हमारा मामला नहीं है और बस हमारा काम तो हो गया, की तर्ज पर आंख मूंदकर रास्ता बदल लेते हैं। तय करना होगा कि क्या वह आने वाली पीढ़ी को भ्रष्ट समाज में ही पालना चाहते हैं? दरअसल, कोई पूरी एक पीढ़ी को ही तय करना होगा कि क्या वह गांधीजी के ‘तीन बंदर’ की तरह बनकर रहना चाहती है? और फिर वह दूसरी आजादी (भ्रष्टाचार से लड़ने) के लिए अपनी किस पीढ़ी को कुर्बान करना चाहती है, फैसला आपके हाथ…